ख़ाक आब-ए-गिर्या से आतिश बुझे नाचार हम
जानिब-ए-कू-ए-बुताँ जूँ बाद-ए-सरसर जाएँगे
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न पाया गाह क़ाबू आह में ने हाथ जब डाला
फ़िलफ़िल-ए-ख़ाल-ए-मलाहत के तसव्वुर में तिरे
एक बोसे से मुराद-ए-दिल-ए-नाशाद तो दो
वो आग लगी पान चबाए से कसू की
ज़ात उस की कोई अजब शय है
क्यूँ तू रोता है दिला आने दे रोज़-ए-वस्ल को
महफ़िल इश्क़ में जो यार उठे और बैठे
आह-ए-पेचाँ अपनी ऐसी है कि जिस के पेच को
फिर आया जाम-ब-कफ़ गुल-एज़ार ऐ वाइज़
दिल तो हाज़िर है अगर कीजिए फिर नाज़ से रम्ज़
मय-कदे में इश्क़ के कुछ सरसरी जाना नहीं
शब पिए वो सराब निकला है