आह-ए-पेचाँ अपनी ऐसी है कि जिस के पेच को
पेचवाँ नीचा भी तेरा देख कर ख़म खाए है
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मोहतसिब भी पी के मय लोटे है मयख़ाने में आज
ज़ात उस की कोई अजब शय है
दिलबर ये वो है जिस ने दिल को दग़ा दिया है
यारा है कहाँ इतना कि उस यार को यारो
अपनी ना-फ़हमी से मैं और न कुछ कर बैठूँ
जान अपनी चली जाए हे जाए से कसू की
चश्म-ए-मस्त उस की याद आने लगी
फिर आया जाम-ब-कफ़ गुल-एज़ार ऐ वाइज़
नीम-चा जल्द म्याँ ही न मियाँ कीजिएगा
कुछ तौर नहीं बचने का ज़िन्हार हमारा
सूफ़ी हूँ न वाइज़ हूँ नहीं हूँ मुल्ला
तीर पहलू में नहीं ऐ रुफ़क़ा-ए-पर्वाज़