अपनी ना-फ़हमी से मैं और न कुछ कर बैठूँ
इस तरह से तुम्हें जाएज़ नहीं एजाज़ से रम्ज़
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उल्फ़त में तेरा रोना 'एहसाँ' बहुत बजा है
नसीब उस के शराब-ए-बहिश्त होवे मुदाम
शब पिए वो सराब निकला है
फ़िलफ़िल-ए-ख़ाल-ए-मलाहत के तसव्वुर में तिरे
ख़ाक आब-ए-गिर्या से आतिश बुझे नाचार हम
याद तो हक़ की तुझे याद है पर याद रहे
ग़ुंचा को मैं ने चूमा लाया दहन को आगे
गरेबाँ चाक है हाथों में ज़ालिम तेरा दामाँ है
जान अपनी चली जाए हे जाए से कसू की
दिल तो हाज़िर है अगर कीजिए फिर नाज़ से रम्ज़
मोहतसिब भी पी के मय लोटे है मयख़ाने में आज
आग इस दिल-लगी को लग जाए