गरेबाँ चाक है हाथों में ज़ालिम तेरा दामाँ है
कि इस दामन तलक ही मंज़िल-ए-चाक-ए-गरेबाँ है
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डर अपने पीर से बी पीर पीर पीर न कर
नमाज़ अपनी अगरचे कभी क़ज़ा न हुई
अनार-ए-ख़ुल्द को तू रख कि मैं पसंद नहीं
आह-ए-पेचाँ अपनी ऐसी है कि जिस के पेच को
तनख़्वाह एक बोसा है तिस पर ये हुज्जतें
दोश-ब-दोश दोश था मुझ से बुत-ए-करिश्मा-कोश
आँखें मिरी फूटें तिरी आँखों के बग़ैर आह
तुम्हारी चश्म ने मुझ सा न पाया
ग़म याँ तो बिका हुआ खड़ा है
अगर बैठा ही नासेह मुँह को सी बैठ
मरते दम नाम तिरा लब के जो आ जाए क़रीब
ख़फ़ा मत हो मुझ को ठिकाने बहुत हैं