अगर बैठा ही नासेह मुँह को सी बैठ
वगर्ना याँ से उठ ऐ बे-हया जा
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कौन सानी शहर में इस मेरे मह-पारे की है
ज़ात उस की कोई अजब शय है
नहीं सुनता नहीं आता नहीं बस मेरा चलता है
सुन रख ओ ख़ाक में आशिक़ को मिलाने वाले
कुछ तौर नहीं बचने का ज़िन्हार हमारा
कुछ तुम्हें तर्स-ए-ख़ुदा भी है ख़ुदा की वास्ते
महफ़िल इश्क़ में जो यार उठे और बैठे
तो भी उस तक है रसाई मुझे एहसाँ दुश्वार
यारा है कहाँ इतना कि उस यार को यारो
हैं एक हकीम जी ब-शक्ल-ए-ताऊन
तिरी आन पे ग़श हूँ हर आन ज़ालिम