तो भी उस तक है रसाई मुझे एहसाँ दुश्वार
दाम लूँ गर पर-ए-जिब्रील बरा-ए-पर्वाज़
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फ़िलफ़िल-ए-ख़ाल-ए-मलाहत के तसव्वुर में तिरे
कौन सानी शहर में इस मेरे मह-पारे की है
चश्म-ए-मस्त उस की याद आने लगी
बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे
कुछ तौर नहीं बचने का ज़िन्हार हमारा
कुछ तुम्हें तर्स-ए-ख़ुदा भी है ख़ुदा की वास्ते
जाँ-कनी पेशा हो जिस का वो लहक है तेरा
यारा है कहाँ इतना कि उस यार को यारो
सूफ़ी हूँ न वाइज़ हूँ नहीं हूँ मुल्ला
तीर पहलू में नहीं ऐ रुफ़क़ा-ए-पर्वाज़
क्यूँ ख़फ़ा तू है क्या कहा मैं ने