आँखें मिरी फूटें तिरी आँखों के बग़ैर आह
गर मैं ने कभी नर्गिस-ए-बीमार को देखा
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कुछ तुम्हें तर्स-ए-ख़ुदा भी है ख़ुदा की वास्ते
इतवार को आना तिरा मालूम कि इक उम्र
मज़े की बात तो ये है कि बे-मज़ा है वो दिल
नसीब उस के शराब-ए-बहिश्त होवे मुदाम
ग़म याँ तो बिका हुआ खड़ा है
उल्फ़त में तेरा रोना 'एहसाँ' बहुत बजा है
ज़ात उस की कोई अजब शय है
डर अपने पीर से बी पीर पीर पीर न कर
मिरी बात-चीत उस से 'एहसाँ' कहाँ है
आग इस दिल-लगी को लग जाए
अपनी ना-फ़हमी से मैं और न कुछ कर बैठूँ
मय-कदे में इश्क़ के कुछ सरसरी जाना नहीं