हैं एक हकीम जी ब-शक्ल-ए-ताऊन
है रक़्स तक़्सीम मुख़िल उन का क़ानून
पढ़ते हैं नफ़ीस और ख़ुद हैं वो कसीफ़
नुस्ख़े हैं अजीब और तुर्फ़ा माजून
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शब पिए वो सराब निकला है
डर अपने पीर से बी पीर पीर पीर न कर
तो भी उस तक है रसाई मुझे एहसाँ दुश्वार
न अदा मुझ से हुआ उस सितम-ईजाद का हक़
नहीं सुनता नहीं आता नहीं बस मेरा चलता है
जान अपनी चली जाए हे जाए से कसू की
आग इस दिल-लगी को लग जाए
अपनी ना-फ़हमी से मैं और न कुछ कर बैठूँ
नमाज़ अपनी अगरचे कभी क़ज़ा न हुई
क्यूँ ख़फ़ा तू है क्या कहा मैं ने
ग़ुंचा को मैं ने चूमा लाया दहन को आगे
नसीब उस के शराब-ए-बहिश्त होवे मुदाम