ग़ुंचा को मैं ने चूमा लाया दहन को आगे
बोसा न मुझ को देवे वो नुक्ता-याब क्यूँकर
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क्यूँ तू रोता है दिला आने दे रोज़-ए-वस्ल को
शब पिए वो सराब निकला है
नसीब उस के शराब-ए-बहिश्त होवे मुदाम
न अदा मुझ से हुआ उस सितम-ईजाद का हक़
एहसान जो अजल से काम तेरा बिगड़े
ब-वक़्त-ए-बोसा-ए-लब काश ये दिल कामराँ होता
तनख़्वाह एक बोसा है तिस पर ये हुज्जतें
गले से लगते ही जितने गिले थे भूल गए
गर है दुनिया की तलब ज़ाहिद-ए-मक्कार से मिल
नहीं सुनता नहीं आता नहीं बस मेरा चलता है
क्यूँ न रुक रुक के आए दम मेरा
क्यूँ ख़फ़ा तू है क्या कहा मैं ने