अँधेरी रात को मैं रोज़-ए-इश्क़ समझा था
चराग़ तू ने जलाया तो दिल बुझा मेरा
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कौन सानी शहर में इस मेरे मह-पारे की है
नहीं सुनता नहीं आता नहीं बस मेरा चलता है
कुछ तुम्हें तर्स-ए-ख़ुदा भी है ख़ुदा की वास्ते
मय-कदे में इश्क़ के कुछ सरसरी जाना नहीं
दिल-रुबा तुझ सा जो दिल लेने में अय्यारी करे
शब पिए वो सराब निकला है
क्यूँकर न मय पियूँ मैं क़ुरआँ को देख ज़ाहिद
जाँ-कनी पेशा हो जिस का वो लहक है तेरा
मोहतसिब भी पी के मय लोटे है मयख़ाने में आज
पलकों से गिरे है अश्क टप टप
उल्फ़त में तेरा रोना 'एहसाँ' बहुत बजा है
बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे