पलकों से गिरे है अश्क टप टप
पट से वो लगा हुआ खड़ा है
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क्यूँ ख़फ़ा तू है क्या कहा मैं ने
क्यूँ न रुक रुक के आए दम मेरा
गर है दुनिया की तलब ज़ाहिद-ए-मक्कार से मिल
तो भी उस तक है रसाई मुझे एहसाँ दुश्वार
एहसान जो अजल से काम तेरा बिगड़े
उस लब-ए-बाम से ऐ सरसर-ए-फुर्क़त तू बता
एक बोसे से मुराद-ए-दिल-ए-नाशाद तो दो
अगर बैठा ही नासेह मुँह को सी बैठ
आँखें मिरी फूटें तिरी आँखों के बग़ैर आह
म्याँ क्या हो गर अबरू-ए-ख़मदार को देखा
सुन रख ओ ख़ाक में आशिक़ को मिलाने वाले
उल्फ़त में तेरा रोना 'एहसाँ' बहुत बजा है