एक बोसे से मुराद-ए-दिल-ए-नाशाद तो दो
कुछ न दो हाथ से पर मुँह से मिरी दाद तो दो
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मरते दम नाम तिरा लब के जो आ जाए क़रीब
ख़फ़ा मत हो मुझ को ठिकाने बहुत हैं
दिल में तुम हो न जलाओ मिरे दिल को देखो
क्यूँकर न मय पियूँ मैं क़ुरआँ को देख ज़ाहिद
मोहतसिब भी पी के मय लोटे है मयख़ाने में आज
तो भी उस तक है रसाई मुझे एहसाँ दुश्वार
हैं एक हकीम जी ब-शक्ल-ए-ताऊन
पलकों से गिरे है अश्क टप टप
बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे
म्याँ क्या हो गर अबरू-ए-ख़मदार को देखा
जाँ-कनी पेशा हो जिस का वो लहक है तेरा
ग़ुंचा को मैं ने चूमा लाया दहन को आगे