उस लब-ए-बाम से ऐ सरसर-ए-फुर्क़त तू बता
मिस्ल तिनके के मिरा ये तन-ए-लाग़र फेंका
Rahat Indori
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Gulzar
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मरते दम नाम तिरा लब के जो आ जाए क़रीब
गले से लगते ही जितने गिले थे भूल गए
ज़ात उस की कोई अजब शय है
नीम-चा जल्द म्याँ ही न मियाँ कीजिएगा
तनख़्वाह एक बोसा है तिस पर ये हुज्जतें
दिल तो हाज़िर है अगर कीजिए फिर नाज़ से रम्ज़
कौन सानी शहर में इस मेरे मह-पारे की है
किस को उस का ग़म हो जिस दम ग़म से वो ज़ारी करे
कुछ तौर नहीं बचने का ज़िन्हार हमारा
न अदा मुझ से हुआ उस सितम-ईजाद का हक़
जान अपनी चली जाए हे जाए से कसू की