गले से लगते ही जितने गिले थे भूल गए
वगर्ना याद थीं मुझ को शिकायतें क्या क्या
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नसीब उस के शराब-ए-बहिश्त होवे मुदाम
क्यूँकर न मय पियूँ मैं क़ुरआँ को देख ज़ाहिद
तनख़्वाह एक बोसा है तिस पर ये हुज्जतें
शब पिए वो सराब निकला है
दिल तो हाज़िर है अगर कीजिए फिर नाज़ से रम्ज़
चश्म-ए-मस्त उस की याद आने लगी
सुन रख ओ ख़ाक में आशिक़ को मिलाने वाले
तीर पहलू में नहीं ऐ रुफ़क़ा-ए-पर्वाज़
हर आन जल्वा नई आन से है आने का
न पाया गाह क़ाबू आह में ने हाथ जब डाला
ख़फ़ा मत हो मुझ को ठिकाने बहुत हैं
म्याँ क्या हो गर अबरू-ए-ख़मदार को देखा