हम अपनी राह पकड़ते हैं देखते भी नहीं
कि किस डगर पे ये ख़ल्क़-ए-ख़ुदा निकलती है
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ये दाग़-ए-इश्क़ जो मिटता भी है चमकता भी है
गो फ़रामोशी की तकमील हुआ चाहती है
मरकज़-ए-जाँ तो वही तू है मगर तेरे सिवा
हमारे दुखों का इलाज कहाँ है
दवाम-ए-वस्ल का ख़्वाब
मुझे डर लगता है
गुंजाइश-ए-अफ़्सोस निकल आती है हर रोज़
ये यक़ीं ये गुमाँ ही मुमकिन है
कि जैसे कुंज-ए-चमन से सबा निकलती है
कभी तो ऐसा है जैसे कहीं पे कुछ भी नहीं
ज़मीं नहीं ये मिरी आसमाँ नहीं मेरा
हर रुख़ है कहीं अपने ख़द-ओ-ख़ाल से बाहर