गुंजाइश-ए-अफ़्सोस निकल आती है हर रोज़
मसरूफ़ नहीं रहता हूँ फ़ुर्सत के बराबर
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यक़ीन है कि गुमाँ है मुझे नहीं मालूम
हमारे दुखों का इलाज कहाँ है
मैं ठहरता गया रफ़्ता रफ़्ता
ढंग के एक ठिकाने के लिए
आख़िरी दिन से पहले
हवा जब तेज़ चलती है
वक़्त गुज़रता नहीं
मेरे पास क्या कुछ नहीं
मौत दिल से लिपट गई उस शब
राह दुश्वार भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
माफ़ कीजिए गा ख़ान साहिब
ये यक़ीं ये गुमाँ ही मुमकिन है