मरकज़-ए-जाँ तो वही तू है मगर तेरे सिवा
लोग हैं और भी इस याद पुरानी में कहीं
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ज़िंदा आदमी से कलाम
गुरेज़ाँ था मगर ऐसा नहीं था
कहीं कोई चराग़ जलता है
हम ने रक्खा था जिसे अपनी कहानी में कहीं
पिछले पहर की दस्तक
और क्या रह गया है होने को
कोई सोचे न हमें कोई पुकारा न करे
तुझ से वाबस्तगी रहेगी अभी
मैं ठहरता गया रफ़्ता रफ़्ता
मजीद-अमजद के लिए
याद भी तेरी मिट गई दिल से
माफ़ कीजिए गा ख़ान साहिब