वो कश्ती से देते थे मंज़र की दाद
सो हम ने भी घर को सफ़ीना किया
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मेरी वहशत भी सकूँ-ना-आश्ना मेरी तरह
शिकस्त-ए-अहद पर इस के सिवा बहाना भी क्या
नक़्श-ए-यक़ीं तिरा वजूद-ए-वहम बुझा गुमाँ बुझा
दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या
ये इक और हम ने क़रीना किया
वो आ रहा था मगर मैं निकल गया कहीं और
मैं क़त्ल हो के भी शर्मिंदा अपने-आप से हूँ
बे-नियाज़ दहर कर देता है इश्क़
नुमू तो पहले भी था इज़्तिराब मैं ने दिया
बे-नियाज़-ए-दहर कर देता है इश्क़