ये बात अलग है किसी धारे पे नहीं है
दुनिया किसी कमज़ोर इशारे पे नहीं है
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तमाम हिज्र उसी का विसाल है उस का
जाने क्या सूरत-ए-हालात रक़म थी उस में
बे-नियाज़-ए-दहर कर देता है इश्क़
दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या
नक़्श-ए-यक़ीं तिरा वजूद-ए-वहम बुझा गुमाँ बुझा
ये इक और हम ने क़रीना किया
वो कश्ती से देते थे मंज़र की दाद
शब को हर रंग में सैलाब तुम्हारा देखें
बे-नियाज़ दहर कर देता है इश्क़
शिकस्त-ए-अहद पर इस के सिवा बहाना भी क्या
मैं क़त्ल हो के भी शर्मिंदा अपने-आप से हूँ