फिर कोई वुसअत-ए-आफ़ाक़ पे साया डाले
फिर किसी आँख के नुक़्ते में उतारा जाऊँ
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अलिफ़ लफ़्ज़ ओ मआनी से मुबर्रा
फिर किसी ख़्वाब के पर्दे से पुकारा जाऊँ
कीचड़ में अटा मौसम
ख़्वाहिश सुखाने रक्खी थी कोठे पे दोपहर
ज़रा देर बैठे थे तन्हाई में
टूटी लज़्ज़त की ख़ुशबू
गोश्त की सड़कों पर
दरवाज़ा खटखटा के सितारे चले गए
दर्द तंहाई की पस्ली से निकल कर आया
चल निकलो
वक़्त की पीठ पर
साए की पिसली से निकला है जिस्म तिरा