कहा था किस ने कि शाख़-ए-नहीफ़ से फूटें
गुनाह हम से हुआ बे-गुनाहियों जैसा
Parveen Shakir
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मैं अपने वास्ते रस्ता नया निकालता हूँ
रिज़्क़ का जब नादारों पर दरवाज़ा बंद हुआ
ये हिजरतें हैं ज़मीन ओ ज़माँ से आगे की
हाँफती नद्दी में दम टूटा हुआ था लहर का
इक चादर-ए-बोसीदा मैं दोश पे रखता हूँ
अपनी कैफ़िय्यतें हर आन बदलती हुई शाम
ये जो ठहरा हुआ मंज़र है बदलता ही नहीं
इश्क़ में ये मजबूरी तो हो जाती है
जब वो इक़रार-ए-आश्नाई करे
जब चाहा ख़ुद को शाद या नाशाद कर लिया
हाँ उसी दिन धूप में हरियालियाँ शामिल हुईं
ख़्वाब के आगे शिकस्त-ए-ख़्वाब का था सामना