इश्क़ में ये मजबूरी तो हो जाती है
दुनिया ग़ैर-ज़रूरी तो हो जाती है
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ख़्वाब के आगे शिकस्त-ए-ख़्वाब का था सामना
लफ़्ज़ों में ख़ाली जगहें भर लेने से
वो आसमाँ के दरख़शिंदा राहियोँ जैसा
असीर-ए-हाफ़िज़ा हो आज के जहान में आओ
इक फ़ना के घाट उतरा एक पागल हो गया
वैसे तो बहुत धोया गया घर का अंधेरा
जब चाहा ख़ुद को शाद या नाशाद कर लिया
नज़र के सामने रहना नज़र नहीं आना
ये जो ठहरा हुआ मंज़र है बदलता ही नहीं
ये हिजरतें हैं ज़मीन ओ ज़माँ से आगे की
तमीज़-ए-फ़र्ज़ंद-ए-अर्ज़-ओ-इब्न-ए-फ़लक न करना