लफ़्ज़ों में ख़ाली जगहें भर लेने से
बात अधूरी, पूरी तो हो जाती है
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वो आसमाँ के दरख़शिंदा राहियोँ जैसा
मैं अपने वास्ते रस्ता नया निकालता हूँ
अपनी कैफ़िय्यतें हर आन बदलती हुई शाम
हर किसी का हर किसी से राब्ता टूटा हुआ
जब वो इक़रार-ए-आश्नाई करे
नज़र के सामने रहना नज़र नहीं आना
मुंकिर का ख़ौफ़
इक फ़ना के घाट उतरा एक पागल हो गया
हाँफती नद्दी में दम टूटा हुआ था लहर का
हिज्र-ज़ाद
लम्हा मुंसिफ़ भी है मुजरिम भी है मजबूरी का