लम्हा मुंसिफ़ भी है मुजरिम भी है मजबूरी का
फ़ाएदा शक का मुझे दे के बरी कर जाए
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अपनी कैफ़िय्यतें हर आन बदलती हुई शाम
नज़र के सामने रहना नज़र नहीं आना
ये हिजरतें हैं ज़मीन ओ ज़माँ से आगे की
दीवार-ए-चीन
मिसाल-ए-सैल-ए-बला न ठहरे हवा न ठहरे
लफ़्ज़ों में ख़ाली जगहें भर लेने से
क्या रात के आशोब में वो ख़ुद से लड़ा था
तमीज़-ए-पिसर-ए-ज़मीन व इब्न-ए-फ़लक न करना
जब चाहा ख़ुद को शाद या नाशाद कर लिया
मैं जब भी छूने लगूँ तुम ज़रा परे हो जाओ
दिल और दुनिया दोनों को ख़ुश रखने में
हज़ीमतें जो फ़ना कर गईं ग़ुरूर मिरा