फिर से तालीफ़-ए-दिल हो फिर कोई
इस सहीफ़े की रू-नुमाई करे
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कभी ख़ुद को दर्द-शनास करो कभी आओ ना
लम्हा मुंसिफ़ भी है मुजरिम भी है मजबूरी का
इक फ़ना के घाट उतरा एक पागल हो गया
वो इत्र-ए-ख़ाक अब कहाँ पानी की बास में
हज़ीमतें जो फ़ना कर गईं ग़ुरूर मिरा
मैं अपने वास्ते रस्ता नया निकालता हूँ
इश्क़ में ये मजबूरी तो हो जाती है
मैं जब भी छूने लगूँ तुम ज़रा परे हो जाओ
रिज़्क़ का जब नादारों पर दरवाज़ा बंद हुआ
हिज्र-ज़ाद
वो आसमाँ के दरख़शिंदा राहियोँ जैसा