हिज्र के मारों की तक़दीर भी क्या होती है
देख सकते हैं मगर बात नहीं हो पाती
उन किनारों से कभी पूछो जुदाई क्या है
उम्र भर जिन की मुलाक़ात नहीं हो पाती
Habib Jalib
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तुम हमारे हो हम तुम्हारे हैं
दश्त में तपते ग़ुबारों से तयम्मुम कर के
इस राज़ से वाक़िफ़ नहीं 'अफ़ज़ल' ये ज़माना
क्या कभी उस से मुलाक़ात हुई है तेरी
होता था जिन्हें देख के मसरूर मैं 'अफ़ज़ल'
बुलंदी से कभी वो आश्नाई कर नहीं सकता
दयार-ए-इश्क़ में महरूमियों के हैं चर्चे
मैं ज़बाँ रखते हुए ख़ामोश हूँ
अश्क आँखों में लिए आठों पहर देखेगा कौन
चल रहे हैं क़तार में सूरज
हमारी क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ का सानी नहीं कोई
सुलगती रेत पे तहरीर जो कहानी है