होता था जिन्हें देख के मसरूर मैं 'अफ़ज़ल'
आँखों में मिरी अब वही मंज़र नहीं आते
हैरान मैं होता हूँ यही सोच के अक्सर
क्या बात है अब छत पे कबूतर नहीं आते
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मैं हूँ बेगाना-ए-जहाँ 'अफ़ज़ल'
ये हक़ीक़त है वो कमज़ोर हुआ करती हैं
मिरी दीवानगी की हद न पूछो तुम कहाँ तक है
आसमानों पे नज़र आती है उस की सुर्ख़ी
ग़मों का एक तूफ़ाँ दिल के अंदर शोर करता है
दर-ब-दर भटका करेंगे रास्ता ढूँडेंगे लोग
अश्क आँखों में लिए आठों पहर देखेगा कौन
तू है ज़ाहिर परस्त ऐ दुनिया
अपनी तन्हाइयों के ग़ार में हूँ
शे'र की मैं रदीफ़ बन जाऊँ
यूँ इलाज-ए-दिल बीमार किया जाएगा