दयार-ए-इश्क़ में महरूमियों के हैं चर्चे
दयार-ए-हुस्न में मग़रूर सब नज़ारे हैं
उन्हें समझने की कोशिश तो कीजिए 'अफ़ज़ल'
वो दिल-फ़रेब निगाहों के जो इशारे हैं
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सुलगती रेत पे तहरीर जो कहानी है
अब भी रातें मिरी महकती हैं
क्या कभी उस से मुलाक़ात हुई है तेरी
अश्क आँखों में लिए आठों पहर देखेगा कौन
हमारी क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ का सानी नहीं कोई
तुम हमारे हो हम तुम्हारे हैं
अब तो हर एक अदाकार से डर लगता है
किसी की याद रुलाये तो क्या किया जाए
ये काएनात मुनव्वर है तेरे जल्वों से
ग़मों की धूप में मिलते हैं साएबाँ बन कर
लब हमारे ख़मोश रहते हैं
हर नग़मा-ए-पुर-दर्द हर इक साज़ से पहले