लब हमारे ख़मोश रहते हैं
और करती हैं गुफ़्तुगू आँखें
फैल जाए जहाँ में तारीकी
बंद कर ले कभी जो तू आँखें
Ahmad Faraz
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चल रहे हैं क़तार में सूरज
दयार-ए-इश्क़ में महरूमियों के हैं चर्चे
मैं हूँ बेगाना-ए-जहाँ 'अफ़ज़ल'
मैं ज़बाँ रखते हुए ख़ामोश हूँ
कर दिया ख़ुद को समुंदर के हवाले हम ने
ये हक़ीक़त है वो कमज़ोर हुआ करती हैं
हमारी क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ का सानी नहीं कोई
अश्क आँखों में लिए आठों पहर देखेगा कौन
ग़मों का एक तूफ़ाँ दिल के अंदर शोर करता है
दिखा न ख़्वाब हसीं ऐ नसीब रहने दे
हैं आँधियों में भी रौशन चराग़-ए-हक़ 'अफ़ज़ल'
होता था जिन्हें देख के मसरूर मैं 'अफ़ज़ल'