हैं आँधियों में भी रौशन चराग़-ए-हक़ 'अफ़ज़ल'
अँधेरे कैसे समझ पाएँ रौशनी का मिज़ाज
नमाज़-ए-इश्क़ अदा करते हैं वो मक़्तल में
हुसैन वाले समझते हैं बंदगी का मिज़ाज
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लब हमारे ख़मोश रहते हैं
किसी की याद रुलाये तो क्या किया जाए
मैं हूँ बेगाना-ए-जहाँ 'अफ़ज़ल'
ग़ज़ल का हुस्न है और गीत का शबाब है वो
दवा-ए-दर्द-ए-ग़म-ओ-इज़्तिराब क्या देता
चल रहे हैं क़तार में सूरज
यादों के नशेमन को जलाया तो नहीं है
कर दिया ख़ुद को समुंदर के हवाले हम ने
तेरे जल्वों को रू-ब-रू कर के
हिज्र के मारों की तक़दीर भी क्या होती है
मैं ज़बाँ रखते हुए ख़ामोश हूँ