हमारे चारों तरफ़ है हुजूम काँटों का
यहाँ पे पहुँचे हैं फूलों की चाह करते हुए
लिबास मिल गया 'अफ़ज़ल' वहीं तहारत का
तिरा ख़याल जो आया गुनाह करते हुए
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दश्त में तपते ग़ुबारों से तयम्मुम कर के
आसमानों पे नज़र आती है उस की सुर्ख़ी
जो मुज़य्यन हों तिरे हुस्न की ताबानी से
सुलगती रेत पे तहरीर जो कहानी है
मिरी दीवानगी की हद न पूछो तुम कहाँ तक है
तुम हमारे हो हम तुम्हारे हैं
ग़ज़ल का हुस्न है और गीत का शबाब है वो
शे'र की मैं रदीफ़ बन जाऊँ
हर नग़मा-ए-पुर-दर्द हर इक साज़ से पहले
लब हमारे ख़मोश रहते हैं
मैं ज़बाँ रखते हुए ख़ामोश हूँ