दिखा न ख़्वाब हसीं ऐ नसीब रहने दे
मैं इक ग़रीब हूँ मुझ को ग़रीब रहने दे
मरीज़-ए-इश्क़ हूँ मुझ को दवा से क्या मतलब
न कर इलाज मिरा ऐ तबीब रहने दे
Habib Jalib
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जो महकता है बू-ए-उर्दू से
बुलंदी से कभी वो आश्नाई कर नहीं सकता
चल रहे हैं क़तार में सूरज
आसमानों पे नज़र आती है उस की सुर्ख़ी
अब भी रातें मिरी महकती हैं
उस की ख़ुश्बू से मोअ'त्तर है मिरी तन्हाई
कर दिया ख़ुद को समुंदर के हवाले हम ने
ये हक़ीक़त है वो कमज़ोर हुआ करती हैं
सुलगती रेत पे तहरीर जो कहानी है
मैं ज़बाँ रखते हुए ख़ामोश हूँ
दवा-ए-दर्द-ए-ग़म-ओ-इज़्तिराब क्या देता
लब हमारे ख़मोश रहते हैं