जो महकता है बू-ए-उर्दू से
उस गुलिस्ताँ का अंदलीब हूँ मैं
है मिरे पास दर्द की दौलत
ऐ ज़माने कहाँ ग़रीब हूँ मैं
Rahat Indori
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शे'र की मैं रदीफ़ बन जाऊँ
कर दिया ख़ुद को समुंदर के हवाले हम ने
तुम हमारे हो हम तुम्हारे हैं
लब हमारे ख़मोश रहते हैं
ग़मों की धूप में मिलते हैं साएबाँ बन कर
मैं हूँ बेगाना-ए-जहाँ 'अफ़ज़ल'
जो मुज़य्यन हों तिरे हुस्न की ताबानी से
दिखा न ख़्वाब हसीं ऐ नसीब रहने दे
ग़ज़ल का हुस्न है और गीत का शबाब है वो
आसमानों पे नज़र आती है उस की सुर्ख़ी
दश्त में तपते ग़ुबारों से तयम्मुम कर के