जो सामना भी कभी यार-ए-ख़ूब-रू से हुआ

जो सामना भी कभी यार-ए-ख़ूब-रू से हुआ

ज़माने भर का युरिश मुझ पे चार सू से हुआ

कहा इशारों से मैं ने कि तुम पे मरता हूँ

जो नुत्क़ बंद मिरा उन की गुफ़्तुगू से हुआ

किसी को भी न हवस थी हलाल होने की

रिवाज-ए-शौक़-ए-शहादत मिरे गुलू से हुआ

जिधर निगाह की जल्वा तिरा नज़र आया

कमाल-ए-कश्फ़ मुझे तेरी आरज़ू से हुआ

खुला न हाल किसी पर कि क्या मिज़ाज में है

ख़ुदाई में कोई वाक़िफ़ न उस की ख़ू से हुआ

अजब घड़ी से गरेबाँ फटा था मजनूँ का

तमाम उम्र न वाक़िफ़ कभी रफ़ू से हुआ

बड़े-बड़ों को लगाया न मुँह कभी मैं ने

वो ज़र्फ़ हूँ कि न वाक़िफ़ कभी सुबू से हुआ

वो ख़ुद भी कर गए तर आँसुओं से तुर्बत को

गली में यार की मदफ़ून इस आबरू से हुआ

बहार-ए-बाग़ को आए जो देखने बे-यार

दिमाग़ और परेशाँ गुलों की बू से हुआ

चढ़ाए गोर-ए-ग़रीबाँ पे गुल जो उस गुल ने

चमन बहिश्त का पैदा मक़ाम-ए-हू से हुआ

हलाल होने को सय्याद से मोहब्बत की

क़ज़ा जो आई तो मानूस मैं अदू से हुआ

ख़ुदाई करने लगा यार बे-नियाज़ी से

बड़ा ग़ुरूर उसे मेरी आरज़ू से हुआ

जहाँ से महफ़िल-ए-मेराज में हुई तलबी

बशर का मर्तबा ये उस की जुस्तुजू से हुआ

लगाते हैं जो सब आँखों से आब-ए-ज़मज़म को

'शरफ़' ये फ़ैज़ का चश्मा मिरी वज़ू से हुआ

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