लिक्खा है जो तक़दीर में होगा वही ऐ दिल
शर्मिंदा न करना मुझे तू दस्त-ए-दुआ का
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पाया तिरे कुश्तों ने जो मैदान-ए-बयाबाँ
रंग जिन के मिट गए हैं उन में यार आने को है
इश्क़-ए-दहन में गुज़री है क्या कुछ न पूछिए
हवस गुलज़ार की मिस्ल-ए-अनादिल हम भी रखते थे
फ़स्ल-ए-गुल में है इरादा सू-ए-सहरा अपना
नाहक़ ओ हक़ का उन्हें ख़ौफ़-ओ-ख़तर कुछ भी नहीं
दिल को लटका लिया है गेसू में
दुखा देते हो तुम दिल को तो बढ़ जाता है दिल मेरा
परी-पैकर जो मुझ वहशी का पैराहन बनाते हैं
आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया
क़रीब-ए-मर्ग हूँ लिल्लाह आईना रख दो
पुर-नूर जिस के हुस्न से मदफ़न था कौन था