मूजिद जो नूर का है वो मेरा चराग़ है
परवाना हूँ मैं अंजुमन-ए-काएनात का
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जवानी आई मुराद पर जब उमंग जाती रही बशर की
तिरी गली में जो धूनी रमाए बैठे हैं
वो रंगत तू ने ऐ गुल-रू निकाली
कभी जो यार को देखा तो ख़्वाब में देखा
शाख़-ए-गुल झूम के गुलज़ार में सीधी जो हुई
हमेशा शेफ़्ता रखती है अपने हुस्न-ए-क़ुदरत का
हुए ऐसे ब-दिल तिरे शेफ़्ता हम दिल-ओ-जाँ को हमेशा निसार किया
जब से हुआ है इश्क़ तिरे इस्म-ए-ज़ात का
तीर-ए-नज़र से छिद के दिल-अफ़गार ही रहा
देखने भी जो वो जाते हैं किसी घायल को
हुआ है तौर-ए-बर्बादी जो बे-दस्तूर पहलू में
आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया