क़रीब-ए-मर्ग हूँ लिल्लाह आईना रख दो
गले से मेरे लिपट जाओ फिर निखर लेना
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नहीं करते वो बातें आलम-ए-रूया में भी हम से
क्या बुझाएगा मिरे दिल की लगी वो शोला-रू
ख़ल्वत-सरा-ए-यार में पहुँचेगा क्या कोई
उड़ कर सुराग़-ए-कूचा-ए-दिलबर लगाइए
परी-पैकर जो मुझ वहशी का पैराहन बनाते हैं
दुनिया जो न मैं चंद नफ़स के लिए लेता
तू नहीं मिलती तो हम भी तुझ को मिलने के नहीं
तिरी गली में जो धूनी रमाए बैठे हैं
कभी जो यार को देखा तो ख़्वाब में देखा
जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था
चाहिएँ मुझ को नहीं ज़र्रीं क़फ़स की पुतलियाँ
रुलवा के मुझ को यार गुनहगार कर नहीं