ख़ल्वत-सरा-ए-यार में पहुँचेगा क्या कोई
वो बंद-ओ-बस्त है कि हवा का गुज़र नहीं
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जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था
जो सामना भी कभी यार-ए-ख़ूब-रू से हुआ
तिरछी नज़र न हो तरफ़-ए-दिल तो क्या करूँ
आग लगा दी पहले गुलों ने बाग़ में वो शादाबी की
रुलवा के मुझ को यार गुनहगार कर नहीं
दिल को अफ़सोस-ए-जवानी है जवानी अब कहाँ
नहीं करते वो बातें आलम-ए-रूया में भी हम से
तलाश-ए-क़ब्र में यूँ घर से हम निकल के चले
बे-वफ़ा तुम बा-वफ़ा मैं देखिए होता है क्या
इलाही ख़ैर जो शर वाँ नहीं तो याँ भी नहीं
जवानी आई मुराद पर जब उमंग जाती रही बशर की
रहा करते हैं यूँ उश्शाक़ तेरी याद ओ हसरत में