कहा जो मैं ने मेरे दिल की इक तस्वीर खिंचवा दो
मँगा कर रख दिया इक शीशा चकनाचूर पहलू में
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इश्क़ हो जाएगा मेरी दास्तान-ए-इश्क़ से
सन्नाटे का आलम क़ब्र में है है ख़्वाब-ए-अदम आराम नहीं
जो सामना भी कभी यार-ए-ख़ूब-रू से हुआ
हुए ऐसे ब-दिल तिरे शेफ़्ता हम दिल-ओ-जाँ को हमेशा निसार किया
लिक्खा है जो तक़दीर में होगा वही ऐ दिल
इश्क़-बाज़ों की कहीं दुनिया में शुनवाई नहीं
पुर-नूर जिस के हुस्न से मदफ़न था कौन था
इलाही ख़ैर जो शर वाँ नहीं तो याँ भी नहीं
तिरी हवस में जो दिल से पूछा निकल के घर से किधर को चलिए
पाया तिरे कुश्तों ने जो मैदान-ए-बयाबाँ
क्या बुझाएगा मिरे दिल की लगी वो शोला-रू
जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था