हच-हाईकर

मैं कि दो रोज़ का मेहमान तिरे शहर में था

अब चला हूँ तो कोई फ़ैसला कर भी न सका

ज़िंदगी की ये घड़ी टूटता पुल हो जैसे

कि ठहर भी न सकूँ और गुज़र भी न सकूँ

मेहरबाँ हैं तिरी आँखें मगर ऐ मूनिस-ए-जाँ

इन से हर ज़ख़्म-ए-तमन्ना तो नहीं भर सकता

ऐसी बे-नाम मसाफ़त हो तो मंज़िल कैसी

कोई बस्ती हो बसेरा ही नहीं कर सकता

एक मुद्दत हुई लैला-ए-वतन से बिछड़े

अब भी रिसते हैं मगर ज़ख़्म पुराने मेरे

जब से सरसर मिरे गुलशन में चली है तब से

बर्ग-ए-आवारा की मानिंद ठिकाने मेरे

आज इस शहर कल उस शहर का रस्ता लेना

हाए क्या चीज़ ग़रीब-उल-वतनी होती है

ये सफ़र इतना मुसलसल है कि थक हार के भी

बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है

तू भी ऐसा ही दिल-आराम शजर है जिस ने

मुझ को इस दश्त-ए-क़यामत से बचाए रखा

एक आशुफ़्ता-सर ओ आबला-पा की ख़ातिर

कभी ज़ुल्फ़ों कभी पलकों को बिछाए रखा

दुख तो हर वक़्त तआक़ुब में रहा करते हैं

यूँ पनाहों में कहाँ तक कोई रह सकता है

कब तलक रेत की दीवार सँभाले कोई

वो थकन है कि मेरा जिस्म भी ढह सकता है

अजनबी लोग नए लोग पराई गलियाँ

ज़िंदगी ऐसे क़राइन में कटेगी कैसे

तेरी चाहत भी मुक़द्दस तेरी क़ुर्बत भी बहिश्त

देस प्रदेश की तफ़रीक़ घटेगी कैसे

ना-गुज़ीर आज हुआ जैसे बिछड़ना अपना

कल किसी रोज़ मुलाक़ात भी इम्कान में है

मैं ये पैराहन-ए-जाँ कैसे बदल सकता हूँ

कि तिरा हाथ मेरे दिल के गरेबान में है

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