न मिरे ज़ख़्म खिले हैं न तिरा रंग-ए-हिना
मौसम आए ही नहीं अब के गुलाबों वाले
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ख़्वाबों के ब्योपारी
ये आलम शौक़ का देखा न जाए
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे
ऐ मेरे वतन के ख़ुश-नवाओ
ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब शौक़ से कि जाँ से गुज़र जाना चाहिए
न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो
कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
हमेशा के लिए मुझ से बिछड़ जा