हवा के हाथ पे छाले हैं आज तक मौजूद
मिरे चराग़ की लौ में कमाल ऐसा था
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दश्त में वादी-ए-शादाब को छू कर आया
हर एक रंग धनक की मिसाल ऐसा था
ये तअल्लुक़ तिरी पहचान बना सकता था
ज़िंदगी ख़ौफ़ से तश्कील नहीं करनी मुझे
उसे इक अजनबी खिड़की से झाँका
जुनूँ को रख़्त किया ख़ाक को लिबादा किया
मेरे कश्कोल में डाल और ज़रा इज्ज़ कि मैं
क़यामत से क़यामत से गुज़ारे जा रहे थे
वो सर उठाए यहाँ से पलट गया 'अहमद'
कल रात इक अजीब पहेली हुई हवा
ग़ुबार अब्र बन गया कमाल कर दिया गया
कोई हैरत है न इस बात का रोना है हमें