दश्त में वादी-ए-शादाब को छू कर आया
मैं खुली-आँख हसीं ख़्वाब को छू कर आया
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जिस समय तेरा असर था मुझ में
उसे इक अजनबी खिड़की से झाँका
तू जो ये जान हथेली पे लिए फिरता है
बस चंद लम्हे पेश-तर वो पाँव धो के पल्टा है
ग़ुबार अब्र बन गया कमाल कर दिया गया
मैं था सदियों के सफ़र में 'अहमद'
मिरे अंदर रवानी ख़त्म होती जा रही है
क़यामत से क़यामत से गुज़ारे जा रहे थे
दस्त-बस्तों को इशारा भी तो हो सकता है
वो दे रहा था तलब से सिवा सभी को 'ख़याल'
किसी दरवेश के हुजरे से अभी आया हूँ