तू जो ये जान हथेली पे लिए फिरता है
तेरा किरदार कहानी से निकल सकता है
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बस्ती से चंद रोज़ किनारा करूँगा मैं
कल रात इक अजीब पहेली हुई हवा
फ़ना के दश्त में कब का उतर गया था मैं
ग़ुबार अब्र बन गया कमाल कर दिया गया
कोई हैरत है न इस बात का रोना है हमें
कोई अन-देखी फ़ज़ा तस्वीर करना चाहिए
मैं था सदियों के सफ़र में 'अहमद'
उसे इक अजनबी खिड़की से झाँका
जो तिरे ग़म की गिरानी से निकल सकता है
दश्त में वादी-ए-शादाब को छू कर आया
क़यामत से क़यामत से गुज़ारे जा रहे थे
वो ज़हर है फ़ज़ाओं में कि आदमी की बात क्या