बस चंद लम्हे पेश-तर वो पाँव धो के पल्टा है
और नूर का सैलाब सा इस आबजू में आ गया
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मेरे कश्कोल में डाल और ज़रा इज्ज़ कि मैं
कोई तो दश्त समुंदर में ढल गया आख़िर
ग़ुबार अब्र बन गया कमाल कर दिया गया
हवा के हाथ पे छाले हैं आज तक मौजूद
महकते फूल सितारे दमकता चाँद धनक
जिस समय तेरा असर था मुझ में
जैसी होनी हो वो रफ़्तार नहीं भी होती
ये भी एजाज़ मुझे इश्क़ ने बख़्शा था कभी
दिल किसी बज़्म में जाते ही मचलता है 'ख़याल'
मैं था सदियों के सफ़र में 'अहमद'
ये भी तिरी शिकस्त नहीं है तो और क्या
दश्त में वादी-ए-शादाब को छू कर आया