मिल ही जाएगा कभी दिल को यक़ीं रहता है
वो इसी शहर की गलियों में कहीं रहता है
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खड़े हैं दिल में जो बर्ग-ओ-समर लगाए हुए
वो वक़्त भी आता है जब आँखों में हमारी
तुम आए हो तुम्हें भी आज़मा कर देख लेता हूँ
जैसे पौ फट रही हो जंगल में
आज रो कर तो दिखाए कोई ऐसा रोना
बहुत उदास हो तुम और मैं भी बैठा हूँ
जाने किस दम निकल आए तिरे रुख़्सार की धूप
अजब नहीं कभी नग़्मा बने फ़ुग़ाँ मेरी
सफ़र नया था न कोई नया मुसाफ़िर था
रात फिर रंग पे थी उस के बदन की ख़ुशबू
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
रोने लगता हूँ मोहब्बत में तो कहता है कोई