मिलने की ये कौन घड़ी थी
बाहर हिज्र की रात खड़ी थी
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जैसे पौ फट रही हो जंगल में
हर लम्हा ज़ुल्मतों की ख़ुदाई का वक़्त है
चाँद भी निकला सितारे भी बराबर निकले
ज़ुल्फ़ देखी वो धुआँ-धार वो चेहरा देखा
ख़ून-ए-दिल से किश्त-ए-ग़म को सींचता रहता हूँ मैं
इन मौसमों में नाचते गाते रहेंगे हम
ये कहना तो नहीं काफ़ी कि बस प्यारे लगे हम को
मोहब्बत मर गई 'मुश्ताक़' लेकिन तुम न मानोगे
इक ज़माना था कि सब एक जगह रहते थे
छट गया अब्र शफ़क़ खुल गई तारे निकले
बहुत रुक रुक के चलती है हवा ख़ाली मकानों में
दिल भर आया काग़ज़-ए-ख़ाली की सूरत देख कर