बे-सबाती चमन-ए-दहर की है जिन पे खुली
हवस-ए-रंग न वो ख़्वाहिश-ए-बू करते हैं
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जो होता आह तिरी आह-ए-बे-असर में असर
जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है वो ख़ुद-काम भी है
सीने में इक खटक सी है और बस
क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के
आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू आज़ार क्या
बातें न किस ने हम को कहीं तेरे वास्ते
अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे
मैं बुरा ही सही भला न सही
जिस दिल में तिरी ज़ुल्फ़ का सौदा नहीं होता
न छोड़ी ग़म ने मिरे इक जिगर में ख़ून की बूँद
मेरा शिकवा तिरी महफ़िल में अदू करते हैं
किसी की नेक हो या बद जहाँ में ख़ू नहीं छुपती