कलाम-ए-मीर समझे और ज़बान-ए-मीरज़ा समझे
मगर उन का कहा ये आप समझें या ख़ुदा समझे
Rahat Indori
Habib Jalib
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
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Mir Taqi Mir
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फिरा किसी का इलाही किसी से यार न हो
बे-सबाती चमन-ए-दहर की है जिन पे खुली
न छोड़ी ग़म ने मिरे इक जिगर में ख़ून की बूँद
आशिक़ों को ऐ फ़लक देवेगा तू आज़ार क्या
ऐ शम्अ सुब्ह होती है रोती है किस लिए
मैं बुरा ही सही भला न सही
किसी की नेक हो या बद जहाँ में ख़ू नहीं छुपती
जिस दिल में तिरी ज़ुल्फ़ का सौदा नहीं होता
फूल अल्लाह ने बनाए हैं महकने के लिए
बातें न किस ने हम को कहीं तेरे वास्ते
क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के