ऐ शम्अ सुब्ह होती है रोती है किस लिए
थोड़ी सी रह गई है इसे भी गुज़ार दे
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जो होता आह तिरी आह-ए-बे-असर में असर
अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे
शोर अब आलम में है उस शोबदा-पर्दाज़ का
क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के
मेरा शिकवा तिरी महफ़िल में अदू करते हैं
बातें न किस ने हम को कहीं तेरे वास्ते
दोस्त जब दिल सा आश्ना ही नहीं
कुछ कम नहीं हैं शम्अ से दिल की लगन में हम
बे-सबाती चमन-ए-दहर की है जिन पे खुली
फिरा किसी का इलाही किसी से यार न हो
सीने में इक खटक सी है और बस